न्यायदर्शन
Nyaydarshan

450.00

AUTHOR: Acharya Udayveer Shastri
SUBJECT: न्यायदर्शन | Nyaydarshan
CATEGORY: Darshan
LANGUAGE: Sanskrit – Hindi
EDITION: 2021
PAGES: 475
BINDING: Hard Cover
WEIGHT: 770 GRMS
Description

न्याय दर्शन नामक शास्त्र की परिगणना आर्ष शास्त्रों के अन्तर्गत होती है । इतना ही नहीं इस पर प्राप्त भाष्य भी आर्ष ही है ।

आर्ष का तात्पर्य ऋषियों द्वारा प्रोक्त जो कुछ भी , वह आर्ष होता है ।

न्याय दर्शन की गणना वेदों के उपाङ्गों में की जाती है । शास्त्र न्याय से जुडा होने के कारण इस शास्त्र का नाम “न्याय” है ।

यह न्याय दर्शन महर्षि गौतम द्वारा प्रोक्त है । इस पर महर्षि वात्स्यायन कृत भाष्य उपलब्ध होता है ।

हम जो बाह्य इन्द्रियों से जिन वस्तु पदार्थों का ज्ञान करते हैं , वह सत्य है या असत्य , इसका निर्णय इस शास्त्र के प्रमाणों से होता है । इन प्रमाणों के माध्यम से हम अपने अज्ञान को दूर कर सकते हैं ।

इसमें आध्यात्मिक विद्या के साथ साथ आन्वीक्षिकी विद्या भी है । इस शास्त्र में तर्क की प्रधानता है, इसलिए इसे तर्क शास्र भी कहा जाता है ।

जीवन को प्रमाणों से प्रमाणित करके ही चलना चाहिए । जो इस प्रकार करता है, उसे अक्षपाद कहते है । इसीलिए गौतम का एक अन्य नाम अक्षपाद भी है ।

न्याय दर्शन में १६ पदार्थों का विश्लेषण हुआ है :—-

(१.) प्रमाण ,

(२.) प्रमेय ,

(३.) संशय,

(४.) प्रयोजन ,

(५.) दृष्टान्त ,

(६.) सिद्धांत ,

(७.) अवयव ,

(८.) तर्क,

(९.) निर्णय ,

(१०.) वाद,

(११.) जल्प,

(१२.) वितण्डा,

(१३.) हेत्वाभास ,

(१४.) छल,

(१५.) जाति,

(१६.) निग्रहस्थान ॥

इन १६ पदार्थों के यथार्थ और सम्यक् ज्ञान से अपवर्ग की प्राप्ति होती है ।

 

ग्रन्थ का नाम – न्यायदर्शन

भाष्यकार – आचार्य उदयवीर शास्त्री

 

न्यायदर्शन के आदि प्रवर्त्तक महर्षि गौतम हैं। महर्षि गौतम से पूर्व का कोई ऐसा ग्रन्थ नहीं है जिसमें तर्क, प्रमाण, वाद आदि का नियमबद्ध विवेचन हो। इस ग्रन्थ में पाँच अध्याय है। प्रत्येक में दो-दो आह्निक हैं और 538 सूत्र हैं। प्रथम अध्याय में उद्देश्य तथा लक्षण और अगले अध्यायों में पूर्वकथन की परीक्षा की गयी है।

 

‘न्याय’ शब्द का अर्थ है कि, जिसकी सहायता से किसी निश्चित सिद्धान्त पर पहुँचा जा सके, उसी का नाम ‘न्याय’ है।

 

न्यायदर्शन को मुख्यतः चार भागों में विभक्त किया जा सकता है –

१. सामान्य ज्ञान की समस्या को हल करना।

२. जगत् की पहेली को सुलझाना।

३. जीवात्मा तथा मुक्ति।

४. परमात्मा और उसका ज्ञान।

 

उपर्युक्त समस्याओं के समाधान के लिए ‘न्याय’ दर्शन ने प्रमाण आदि सोलह पदार्थ माने हैं। न्याय का मुख्य प्रतिपाद्य विषय प्रमाण है।

 

इस दर्शन में जीव, ईश्वर के अस्तित्व पर अनेको तर्क उपस्थित किये हैं। पुनर्जन्म और कर्मफल की मीमांसा की गयी है। वेद की अपौरुषेयता को सिद्ध किया गया है। हैत्वाभास और निग्रहस्थानों का इस शास्त्र में उल्लेख है।

 

प्रस्तुत् भाष्य आचार्य उदयवीर शास्त्री जी द्वारा किया गया है। यह भाष्य आर्यभाषानुवाद में होने के कारण, उनके लिए भी लाभकारी है, जो संस्कृत का ज्ञान नहीं रखते हैं। इस भाष्य में प्रत्येक सूत्र का शब्दार्थ पश्चात् विस्तृत व्याख्या है। इस भाष्य में न्याय प्रतिपादित तत्वों का सूक्ष्म विवेचन किया गया है।

 

यह भाष्य विद्वानों से लेकर साधारणजनों तक के लिए सुबोध एवं रुचिकर होने से सभी के लिए समान रुप से उपादेय है।

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