वैदिकधात्वर्थविचार Vedic Dhatvartha Vichar
₹750.00
AUTHOR: | Dr. Satyadev Nigamalankar Chaturvedi (डॉ. सत्यदेवनिगमालंकार चतुर्वेदी) |
SUBJECT: | वैदिकधात्वर्थविचार | Vedic Dhatvartha Vichar |
CATEGORY: | Vedic Dharma |
PAGES: | 253 |
EDITION: | 2012 |
LANGUAGE: | Sanskrit – Hindi |
BINDING: | Hardcover |
WEIGHT: | 522 G. |
लेखक के दो शब्द
वैदिकधात्वर्थविचार पुस्तक डॉ. सत्यदेव निगमालंकार चतुर्वेदी
वैदिक ज्ञानज्योति को प्रदीप्त करने के लिये ऋषियों ने शिक्षा, कल्प, व्याकरण निरुक्त, छन्द और ज्योतिष इन वेदाङ्गों का प्रणयन किया। इन वेदाङ्गों के माध्यम से वेदों का अर्थ-बोध सामान्य-जन को भी होने लगा। इनमें भी चतुर्थ
वेदाङ्ग निरुक्त वेदार्थावबोधन में मुख्य माना जाता है- अर्थावबोधे निरपेक्षतया पदजातं यन्त्रोक्तं तन्निरुक्तम्।
सायणकृत ऋग्वेदभाष्य भूमिका।
अर्थात् अर्थज्ञान के लिये स्वतन्त्र रूप से जहां पदों का समूह कहा गया है, वह निरुक्त है। अर्थ शब्द के अन्तरङ्ग से सम्बन्ध रखता है, अतः अर्थ मुख्य होता है। निरुक्त का मुख्य प्रयोजन भी यही है कि वह शब्दों की निरुक्ति करके व्युत्पत्तिमूलक अर्थों को अध्येता के समक्ष प्रकट कर देता है। वस्तुतः निरुक्त वेदार्थ की दृष्टि से प्रमुख वेदाङ्ग है।
प्राचीनकाल में अनेक निरुक्तकार हो चुके हैं। स्वयं यास्क ने आग्रायण, औदुम्बरायण, और्णवाभ, औपमन्यव, कात्थक्य, कौष्ठकि, गार्ग्य, गालव, चर्मशिरस्, तैटीकि, शतवलाक्ष, शाकपूणि, शाकपूणिपुत्र तथा स्थौलाष्ठीवि-इन आचार्यों के निरुक्तकार होने की चर्चा अपने ग्रन्थ में स्थान-स्थान पर की है। संभव कि इन आचार्यों ने अपना कोई निरुक्त रचा हो, जो धीरे-धीरे काल- कवलित हो गया हो।
दूसरी हमारे विचार से यह भी संभावना है कि इन चौदह आचार्यों में से कतिपय आचार्यों ने निरुक्त रचा हो और कतिपय आचार्य निरुक्त के विशेषज्ञ होकर निरुक्त-सम्बन्धी विभिन्न सिद्धान्तों का पठन-पाठन तथा प्रचार और प्रसार अपनी शिष्य-मण्डली में करने लगे हों। अस्तु, कुछ भी हो, किन्तु यह मानना होगा कि ये आचार्य निरुक्त सिद्धान्त के विशेष पण्डित थे तथा इनके द्वारा प्रतिपादित विचार विद्वानों में प्रमाण रूप में ग्राह्य होता था। तभी यास्क ने इन्हें आदरपूर्वक याद किया है। परन्तु वर्तमान काल में केवल यास्क कृत निरुक्त ही प्राप्त होता है।
उपलब्ध यास्कीय निरुक्त भी वैदिक कोष निघण्टु का व्याख्यान है। इस निघण्टु में पांच अध्याय है तथा उन अध्यायों के अन्तर्गत खण्ड है और उन खण्डों में नामपद तथा आख्यातपद हैं। यास्क ने निरुक्त में इस निघण्टु के चतुर्थ तथा पञ्चम अध्याय में पठित पदों का व्याख्यान कर दिया है, प्रथम, द्वितीय और तृतीय अध्याय के खण्डों में से एक अथवा दो अथवा अधिक भी नामपदों का व्याख्यान नैघण्टुक काण्ड में दिखा दिया है, किन्तु आख्यात-पदों के विषय में उसने कोई न निर्वचन ही दिया है और न व्याख्यान ही।
वस्तुतः निरुक्तकार यास्क पदों का अर्थ बतलाने के लिये जिस मन्त्र में वह पद होता है उसके मन्त्र को उद्धृत कर उस पद का अर्थ दर्शाते हैं, कहीं-कहीं पदार्थ के साथ-साथ मन्त्र में समागत अन्य पदों का अर्थ भी प्रस्तुत कर देते हैं तथा कहीं-कहीं पदों के पर्यायवाची पदों का भी व्याख्यान करते हैं। किन्तु आख्यात पदों के पर्यायवाची पदों का भी व्याख्यान करते हैं। किन्तु आख्यात पदों के विषय में उन्होंने न कोई मन्त्र ही प्रस्तुत किया और न अर्थ ही दर्शाया। इस प्रकार निघण्टु में पठित ३१५ आख्यात पदों का यास्क ने पूर्णतः अव्याख्यात ही छोड़ दिया है। आख्यातों के सम्बन्ध में उसकी शैली इस प्रकार है-
ज्वलतिकर्माण उतरे धातव एकादश निरु० २.१७
कान्तिकर्माण उतरे धातवो अष्टादश निरु० ३.९
अत्तिकर्माण उतरे धातवो दश निरु० ३.९
कुध्यतिकर्माण उत्तरे धातवो दश निरु० ३.१२
कतिपय आख्यात निघण्टु-कोष में ऐसे भी हैं, जो एक से अधिक अर्थों में पठित हैं। उनके सम्बन्ध में भी यास्क ने निरुक्त में कोई चर्चा नहीं की है।
यतः निरुक्तकार ने निघण्टु पठित आख्यातों को सर्वथा अव्याख्यात छोड़ दिया है, अतः उन समस्त ३१५ आख्यातों का ऋग्वेद के अन्तर्गत क्या अर्थ है, तथा भाष्यकारों ने निघण्टु से कहां तक सहमति और मत-भिन्नता दर्शायी है, उसी का मूर्तरूप प्रस्तुत शोधग्रन्थ है।
प्रस्तुत ‘वेदधात्वर्थविचार’ नामक ग्रन्थ जिन अध्यायों, विषयों, शीर्षकों तथा उपशीर्षकों में विभक्त है, उनका परिचय विषय-सूची से हो जाता है, अतः यहाँ पिष्टपेषण उचित नहीं है। पुनरपि इतना कहना उपयुक्त होगा कि ग्रन्थ के प्रथम अध्याय में निघण्टु, निरुक्त तथा आख्यात सम्बन्धी विशेष चर्चाएँ हैं और द्वितीय अध्याय से अष्टम अध्याय तक वैदिक कोष निघण्टु में पठित ३१५ आख्यातों का ऋग्वेद में प्रयोग देखा गया है।
जिनका क्रम यह है कि प्रथम आख्यात दर्शाया गया है, पुनः लौकिक धातुपाठ में उसे किस अर्थ में स्वीकार किया गया है, वह धातु तथा उसके अर्थ गृहीत किये गये हैं, इसके लिये मुख्यतः पाणिनीय धातुपाठ का आश्रय लिया है। कतिपय धातुएँ ऐसी भी हैं, जो पाणिनीय धातुपाठ में न होकर काशकृत्स्त्रधातुव्याख्यानम् अथवा अन्य धातुग्रन्थों में ही पठित है, वहाँ से वे दिखायी गयी हैं। लोक में वह धातु परस्मैपदी, आत्मनेपदी अथवा उभयपदी है-इस हेतु रूप दिये गये हैं। पुनः निघण्टु के उस आख्यात की ऋग्वेद में क्या स्थिति है, वे रूप हमने दिये हैं।
उनमें से दो तीन, चार अथवा पाँच रूपों से सम्बन्धित मन्त्र देकर भाष्यकारों के द्वारा किये गये अर्थ से आख्यातार्थ को देखा है। कतिपय मन्त्रों का भाष्यकारों ने व्याकरणानुसार अर्थ कर दिया है, वहाँ हमें निरुक्त परम्परा का आश्रय लेकर अर्थ करना पड़ा है, जो वेदार्थ में उपयुक्त है। अन्त में उपसंहार तथा अनुक्रमणियाँ दी गयी हैं।
मेरी धर्मपत्नी डॉ० श्रीमती उमा शर्मा ने गृहस्थ की अनेक समस्यों से स्वयं जूझते हुए मुझे वेदभगवान् की सेवा का जो अवसर प्रदान किया उसके लिये मैं उनका हृदय से कृतज्ञ हूँ। अतः यह ग्रन्थ मैं उन्हीं को समर्पित करता हूँ। मैं अपनी प्रिय पुत्री डॉ० प्रज्ञा शर्मा और प्रिय पुत्र विवेककुमार शर्मा को अपना हार्दिक आशीर्वाद ही प्रदान कर सकता हूँ, जिन्होंने ग्रन्थ के लेखन-काल में मुझे अपनी भोली-भाली स्वाभाविक बाल्योचित चपलता से कभी उद्विग्न नहीं किया।
अन्त में इस ‘वैदिकधात्वर्थविचार’ नामक ग्रन्थ के सम्पादक डॉ० नरेश कुमार को आशीर्वाद देता हूँ, जिन्होंने अल्पसमय में ही इसका सम्पादन पूर्ण कर दिया। डॉ० श्री राधेश्याम शुक्ल, एम०ए०, पी-एच०डी (संस्कृत), अध्यक्ष, प्रतिभा प्रकाशन, शक्तिनगर, नई दिल्ली किस संस्कृत विद्वान् से अपरिचित हैं, जिन्होंने प्रकाशन के माध्यम से वेदमाता के ज्ञान को भारतवर्ष के कोने- कोने तक पहुँचाने का महाव्रत लिया हुआ है। इस प्रकाशन के अवसर पर मैं हृदय से उनका धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ।
प्रस्तुत ग्रन्थ से वेदमाता की जो सेवा हो पायी है वह विद्वानों के समक्ष प्रस्तुत की जा रही है। आशा है कि वेद के शोधकर्ताओं के लिये यह ग्रन्थ निरुक्त, वैदिक तथा लौकिक धातुपाठों, वेद के भाष्यकारों के द्वारा किए गये अर्थ एवं विभिन्न रूपों के लिये सहायक बनेगा।
वेदमाता का उपासक
वेदवाचस्पति प्रो० सत्यदेवनिगमालङ्कार चतुर्वेदी श्रद्धानन्द वैदिक शोध संस्थान
गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय, हरिद्वार
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