जिज्ञासा विमर्श
Jigyasa Vimarsh

100.00

AUTHOR: Acharya Somdev Arya
SUBJECT: जिज्ञासा विमर्श | Jigyasa Vimarsh
CATEGORY: Vedic Dharma
LANGUAGE: Hindi
EDITION: 2015
PAGES: 271
BINDING: Paper Back
WEIGHT: 290 GM

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Description

भूमिका

मनुष्य की प्रवृत्ति बचपन से ही जिज्ञासु प्रवृत्ति रही है। बच्चे अपने अभिभावकों से अनेकों प्रश्न करते हैं और अभिभावक उनके प्रश्नों के उत्तर देकर ज्ञान की वृद्धि करते हैं। बच्चों के प्रश्नों और बड़ों के प्रश्नों में बहुत कुछ अन्तर रहता है। बड़े गम्भीर प्रश्न पूछते हैं, जिनका उत्तर देने के लिए विशेष विचार मन्थन करना आवश्यक हो जाता है। व्यक्ति जिस क्षेत्र में रुचि रखता है, उसी क्षेत्र में उसकी जिज्ञासाएँ भी बढ़ने लगती हैं।

जिज्ञासाओं का आधार स्वाध्याय, विचार, श्रवण आदि बनते हैं। इनसे उठी हुई जिज्ञासाओं का समाधान व्यक्ति स्वयं विचार करके, ग्रन्थों का अवलोकन कर वा किसी विद्वान् से पाकर सन्तुष्ट होता है।

जो व्यक्ति न तो प्रवचन आदि सुनता, न ही स्वाध्याय करता, वह व्यक्ति जिज्ञासु प्रवृत्ति का कम मिलेगा, उसके ज्ञान का स्तर भी अल्प होगा और जो स्वाध्याय वा सुने हुए के बल पर प्रश्न उठाकर जिज्ञासा करता है, यह उसकी विचारशीलता का द्योतक है, ऐसा व्यक्ति उत्तरोत्तर ज्ञान की वृद्धि करता रहता है। ‘जिज्ञासा-विमर्श’ पुस्तक में अनेक विषयों को लेकर जिज्ञासा समाधान

किया गया है। उनमें एक विषय ‘जीवात्मा’ का है। जिज्ञासु ने जिवात्मा के स्वरूप विषय में पूछा है कि जीवात्मा साकार है या निराकार। जिज्ञासु के इस प्रश्न का आधार एक वर्ग विशेष द्वारा आत्मा को साकार बताना है। इस वर्ग विशेष को छोड़कर अन्य किसी पूर्व के विद्वान् वा वर्तमान के विद्वानों ने आत्मा को साकार नहीं कहा। जहाँ तक मैं जानता हूँ कि आत्मा को साकार मानने वालों की अपनी कल्पना के अतिरिक्त कोई आर्ष प्रमाण नहीं है।

इस पुस्तक में महर्षि दयानन्द के प्रमाण देते हुए आत्मा को निराकार सिद्ध किया है, जो कि आत्मा का यह स्वरूप है। आत्मा के साकार-निराकार के विषय में मेरा पाठकों से निवेदन है कि वह किसी स्वयम्भू विद्वान् की बात न मानकर महर्षि की ही बात को मानेंगे तो भ्रान्ति निवारण होता रहेगा अन्यथा ऐसे स्वयम्भू भ्रान्ति में डालते ही रहेंगे।

आर्यसमाज में महर्षि के काल से ही जिज्ञासा समाधान की परम्परा चली आयी है। उसी परम्परा को परोपकारी पत्रिका के माध्यम से श्रद्धेय आचार्य सत्यजित् जी ने आरम्भ किया था, अब इस परम्परा को लगभग दो वर्ष से मैं चला रहा हूँ। आचार्य सत्यजित् जी की जिज्ञासा समाधान करने की अपनी एक विशेष शैली है। आचार्य श्री जिज्ञासा के मूल में जाकर समाधान करते हैं कि जिस समाधान से अन्य प्रश्नों का उत्तर भी आ जाता है। मैं इनकी शैली से अत्यधिक प्रभावित रहा हूँ। जिज्ञासा- समाधान के लिए आचार्य श्री मेरे अधिक आदर्श हैं।

‘जिज्ञासा-विमर्श’ पुस्तक पाठकों के हाथ में है, इसको पुस्तक रूप में देने का श्रेय योगनिष्ठ श्रद्धेय स्वामी विष्वङ् जी को जाता है। इन्हीं की प्रेरणा से परोपकारी पत्रिका में आ रहे ‘जिज्ञासा समाधान’ स्तम्भ के लेखों को इकट्ठा कर पुस्तक रूप में दिया गया है। स्वामी जी की प्रेरणा के लिए मैं उनके प्रति कृतज्ञ हूँ। पुस्तक को व्यवस्थित करने में सबसे अधिक सहयोग प्रिय दीपक जी (छिन्दवाड़ा) ने किया है

पुस्तक की प्रूफ रीडिंग ब्र. अमित जी व डॉ. नन्दकिशोर काबरा जी ने की, पुस्तक रूपाकंन श्री कमलेश पुरोहित जी ने किया व प्रकाशन परोपकारिणी सभा ने किया है, इन सबका हृदय से धन्यवाद। पुस्तक प्रकाशन में जिन महानुभावों ने आर्थिक सहयोग किया, उन सबका आभार मानता हूँ। जिज्ञासा-समाधान करने में जिन भी विद्वानों, लेखकों का सहयोग प्राप्त हुआ, उन सभी के प्रति कृतज्ञता प्रकट करता हुआ परमेश्वर को धन्यवाद करता हूँ कि यह कार्य अच्छी प्रकार सम्पन्न हुआ।

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