पुरोवाक्
विद्वान् तीन प्रकार के होते हैं-ज्ञानी, प्रवचनकर्त्ता और लेखक। प्रथम वे, जो ज्ञान के भण्डार तो होते हैं, किन्तु उनमें प्रवचन करने का तथा लेखन का उत्साह नहीं होता है। दूसरे, जो सञ्चित ज्ञान को प्रवचन, उपदेश, कथा तथा अध्यापन द्वारा अन्यों तक पहुँचाने में समर्थ होते हैं। तीसरे, जो उपार्जित ज्ञान-विज्ञान को प्रवचन के द्वारा दूसरों तक पहुंचाने के साथ ही उसे चिरस्थायी बनाने के लिये उसको लेखरूप में प्रकाशित करते हैं। माननीय मनस्वी डॉ. धर्मवीर जी में वैदुष्य के ये तीनों गुण थे। जहाँ वे विविध ज्ञान-धाराओं के धनी थे, वहीं शास्त्रीय प्रवचन उनके दैनिक कार्यक्रम का एक अभिन्न अङ्ग था। प्रवचन-प्रचक्षणता के साथ ही वे लेखनी के भी जाने-माने प्रयोक्ता थे। ‘परोपकारी’ आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित उनके सम्पादकीय लेख उनकी सिद्धहस्त लेखन कला के प्रमाण हैं।
जहाँ सामाजिक, राजनैतिक, ऐतिहासिक आदि विषयों पर तथा समसामयिक आन्दोलनों पर उनकी लेखनी मुखरता के साथ चलती थी, वैसे ही शास्त्र-विवेचन पर भी वह उतनी ही प्रभावशाली होती थी। ‘स्तुता मया वरदा वेदमाता’ शीर्षकवाली यह पुस्तिका उनके वेद-मन्त्र-भाव- समुद्घाटन की क्षमता को प्रदर्शित करती है, इसमें कुल २४ मन्त्रों का व्याख्यान है। अथर्ववेद के ‘सांमनस्य सूक्त’ (३-३०.१-७) के सात मन्त्र/ ऋग्वेदीय ‘शची पौलोमी’ सूक्त (१०.१५९.१-६) के छः मन्त्र / ऋग्वेदीय ‘विश्वेदेवाः सूक्त’ (१०.१३७.१-७) के सात मन्त्र। ऋग्वेदीय (१०.५.६) ‘सप्त मर्यादाः’ शीर्षक वाला एक मन्त्र और ईशोपनिषद् (यजुर्वेद ४०.१५, १६, १७) के तीन मन्त्र, इसमें समाविष्ट हैं।
‘सांमनस्यसूक्त’ के मन्त्रों का विश्लेषण करते हुए लेखक ने गृहस्थाश्रम के सभी पहलुओं पर अनूठा प्रकाश डाला है। ‘शची पौलोमी’ सूक्त के मन्त्रों के रहस्यों का अनूठा उद्घाटन करते हुए उन्होंने गृह की गृहस्थाश्रम की केन्द्रभूता ‘नारी’ का जो हृदयग्राह्य सुचित्रण किया है, वह अद्वितीय है। ऋग्वेद के दशम मण्डल के १३७ वें सूक्त ‘विश्वेदेवाः’ सूक्त के मन्त्रों में आये पदों के अनुरूप लेखक ने स्वास्थ्य के सभी पहलुओं पर उत्तम प्रकाश डाला है। शरीरार्थ अत्युपयोगी वायु, जल, औषध आदि की आवश्यकता, उपयोगिता तथा उनके प्रयोग के प्रकारों का इसमें विस्तार से वर्णन है।
साथ ही चिकित्सक का महत्त्व दर्शाया गया है। रोगाभिसर रोगी के रोग को दूर करना ही जिसका मुख्य उद्देश्य होता है, ऐसे निर्लोभी, ज्ञानी वैद्य और प्राणाभिसर = स्वार्थी तथा अल्पज्ञानी वैद्य का भी चित्रण किया है। जल चिकित्सा, प्राकृतिक चिकित्सा तथा स्पर्श चिकित्सा का भी उल्लेख है। रोगनिवारण में युक्ति का क्या महत्त्व है, यह भी बताया है। स्वास्थ्य लाभ एवं रोगनिवारण में देवों की विद्वानों की सहायता की भी प्रशंसा की गई है। निराशा रोग निवारण में परम बाधक है, इसलिये रोगी सदा आशावान् रहे, ऐसा सुझाव दिया गया है।
अन्त में ईशोपनिषद् (यजुर्वेद ४०.१५,१६,१७) के अन्तिम तीन मन्त्रों की बेजोड़ व्याख्या है। आत्मा की अमरता और शरीर की नश्वरता= भस्मसात्परिणायिता का उत्तम विवेचन है। ‘ओ३म्-स्मरण’ और ‘कर्म- स्मरण’ का हृदयग्राही वर्णन है। ‘हिरण्मयेन…’ मन्त्र में वर्णित सत्य का स्वरूप चकाचौंध वाले धनादि के लोभ से ढका रहता है, इसके विश्लेषण में लेखक ने ऋषि दयानन्द के ‘सत्य ही धर्म’ है और धर्म नाम सत्य का है इसे हृदयाकर्षक शब्दों में अभिव्यक्त किया है।
अन्तिम ‘अग्ने नय’ मन्त्र के व्याख्यान में अन्ततोगत्वा तो प्रभु का मार्गदर्शन ही सब लक्ष्यों को प्राप्त कराने वाला है। उसकी शरण में जाये बिना कुटिल पापों से छुटकारा पाना असम्भव है, इस पर जोर देते हुए भक्त को नम्र और स्तुतिपरायण बनने की सलाह दी गई है।
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