महर्षि दयानन्द सरस्वती के उच्चतम जीवन की घटनाओं का पाठ करते समय हमें तो ऐसा प्रतीत होने लगता है कि आज तक जितने भी महात्मा हुए हैं, उनके जीवनों के सभी विन्ध्यावर अंश दयानन्द में पाये जाते थे। वह गुण ही न होगा जो उनके सर्व-सम्पत्र स्वरूप न विकसित हुआ हो। महाराज का हिमालय की चोटियों पर चकर लगाना, की यात्रा करना, नर्मदा के तट पर घूमना, स्थान-स्थान पर साधु-सन्तों के शुभ दर्शन और सत्संग प्राप्त करना, मंगल नाम श्रीराम को स्मरण कराता है।
कर्णवास में कर्णसिंह के बिजली की भाँति चमकते खड्ग को देखकर भी महाराज नहीं काँपे, तलवार की अतितीक्ष्णधारा को अपनी ओर झुका हुआ अबलोकन करके भी निर्भय बने रहे और साथ ही गम्भीर भाव से कहने लगे कि आत्मा अमर है, अविनाशी है! इसे कोई हनन नहीं कर सकता। यह घटना और ऐसी ही अन्य अनेक घटनायें ज्ञान के सागर श्री कृष्ण को मानस नेत्रों के आगे मूर्त्तिमान बना देती हैं। ऐसा प्रतीत होने लगता है कि मानो वे ही बोल रहे हैं।
दीन-दुखियों, अपाहिजों और अनाथों को देखकर श्रीमदयानन्दजी क्राइस्ट वन जाते हैं। पुरन्धर वादियों के सम्मुख श्री शङ्कराचार्य का रूप दिखा देते हैं। एक ईश्वर का प्रचार करते और विस्तृत भ्रातृभाव की शिक्षा देते हुए भगवान् दयानन्दजी श्रीमान् मुहम्मदजी प्रतीत होने लगते हैं।
ईश्वर का यशोगान करते हुए स्तुति प्रार्थना में जब प्रभु दयानन्द इतने निमन्न हो जाते हैं कि उनकी आँखों से परमात्म-प्रेम की अविरल अश्रुधारा निकल आती हैं, गद्गद् कण्ट और पुलकित-गात हो जाते हैं, तो सन्तवर रामदास, कबीर, नानक, दादू, चेतन और तुकाराम का समय बन्ध जाता है। वे सन्त- शिरोमणि जान पड़ते हैं। आर्यत्व की रक्षा के समय वे प्रातः स्मरणीय प्रताप, श्री शिवाजी तथा गुरु गोविन्दसिंह जी का रूप धारण कर लेते हैं।
महाराज के जीवन को जिस पक्ष से देखें, वह सर्वांग सुन्दर प्रतीत होता है। त्याग और वैराग्य की उसमें न्यूनता नहीं है। श्रद्धा और भक्ति उसमें अपार पाई जाती है। उसमें ज्ञान अगाध है। तर्क अथाह है। वह समयोचित मति का मन्दिर है। प्रेम और उपकार का पुत्र है। कृपा और सहानुभूति उसमें कूट-कूटकर भरी पड़ी है। वह ओज है, तेज है, परम प्रताप है, लोक-हित है और सकल कला सम्पूर्ण है।
-सत्यानन्द
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