सावरकर जी के जीवन प्रसंगों की तरह उनकी रचनाओं भी बड़ा मार्मिक एवं रोमांचकारी इतिहास रहा है । उनकी 1857 का भारतीय स्वातन्त्र्य समर ‘ पुस्तक अपने विषयवस्तु की दृष्टि से जैसे क्रान्तिकारी ग्रन्थ था , एक क्रान्तिकारी द्वारा लिखा गया , किन्तु उसकी विशेषता और महानता कीर्ति के पंख लगा के जैसे उड़ने लगी । कारण यह कि . संसार का वह एक विचित्र अपवाद था — जिस ग्रंथ के प्रकाशन से पूर्व ही उसकी पाण्डुलिपि किसी साम्राज्यवादी सत्ता ने जब्त कर ली । मानो किसी साहसी लेखक ने शत्रु के घर जाकर ही उसका कच्चा चिट्ठा तैयार किया , जब शत्रु को पता लगा तो वह बोखला उठा । उसी प्रकार ‘ गोमांतक ‘ का निर्माण भी बड़ा अद्भुत संस्मरण है जैसे कटार की छाया में भी किसी विद्रोही कवि ने अपने विचारों के ज्वालामुखी को व्यक्त किया । यह ग्रन्थ अण्डमान जेल की विकराल सींखचों में तैयार हुआ वीर सावरकर ऐसा भयंकर बन्दी समझा गया , जिसकी गतिविधियों की विशेष निगरानी के कड़े आदेश थे । उसकी सूचना भारत सरकार के अतिरिक्त ब्रिटिश सरकार को भी भेजी जाती थी , उस जैसे बन्दी के आवेदन पर विचार करने का प्रश्न ही नहीं उठता था अतः कागज लेखनी एवं अन्य सामग्री देने से जेल अधिकारियों का स्पष्ट इन्कार था । किन्तु एक क्रान्तिकारी . एक विचारक कवि कैसे अपनी मानसिक भूख को तृप्त किए बिना रह सकता था । उसे एक नई अनुभूति हुई कि हमारे ऋषि – मुनि कन्दराओं एवं हिम पर्वतों में रहकर कैसे इतना महान तत्वज्ञान संसार को दे गए । तब उनको सूझा कि – ऐसा तत्वज्ञान साहित्य – सृजन , कथा या इतिहास वाक्य , शब्द रचना यानी गद्य में लिखना संभव नहीं , यदि वर्षों तक भी स्मरण शक्ति द्वारा संजोकर रखा जा सकता है -तो पद्य यानी काव्य के रूप में । इसी कारण प्राचीन संस्कृत साहित्य मन्त्र एवं श्लोक भी उनकी काव्य – शैली में है , तब इस परमपुरुष ने भी यही प्रयोग आरम्भ किया । उनकी जेल में जो श्रम करना पड़ता था . वह दो – तीन प्रकार था । एक था मूँज का पटसन , जूट के रेशे कूटना – या बेलों के समान तेल निकालने के लिए कोल्हू में जुतना यह एक बड़ी हृदयविदारक बात थी . कि जब वह पशु के समान गोल चक्कर में लड़खड़ाते हुए घूमते ती मराठी जो उनकी मातृभाषा है जिसके वह उच्च कोटि के साहित्यकार एवं कवि है । उसकी कविता का एक पद्य या छन्द तैयार हो जाता और यह सोभाग्य इस गोमांतक महाकाव्य एवं एक दूसरी अनुपम काव्यकृति कमला को प्राप्त है – जब इस काम से निवृत्त होते तो भी उनको सामान्य मानवी अधिकार सुविधाएँ तो प्राप्त थी नहीं वह उस कविता के छन्दों के गुण – दोष परखने के लिए एवं अच्छी तरह कण्ठस्थ हो जाये उस समय तक के लिए लकड़ी के जले कोयले से अपनी जेल – कोठरी की दीवारों पर लिखते । जिसमें प्रायः अंधेरा ही रहता था- एक ओर से रोशनी केवल आती थी । इस पर भी यह मुसीबत कि उसको वार्ड के आने से पूर्व , अल्प समय में कण्ठस्थ करना अनिवार्य होता । इसी प्रकार वर्षों बीत जाने पर उन्होंने कई हजार कविता के छन्द – पद्य , जो भी थे , पूरे कण्ठस्थ कर लिए । अण्डमान से मुक्त होने के बाद उनको स्नागिरि में स्थानबद्धता की अवधि में लिपिबद्ध किया । जब उन्होंने रत्नागिरि की एक गोष्ठी में अपना यह मार्मिक संस्मरण सुनाया , तो वहाँ बैठे एक श्रोता के मुख से बरबस निकल पड़ा – धन्य ऋषिवर सावरकर उनकी जो रचनाएँ हिन्दुख , हिन्दू – पद – पादशाही मोपला एवं नाटक निबंध इत्यादि है – वे गद्य में हैं । इन ग्रन्थों की भूमिका एवं विषय सामग्री का प्रारूप उनके मस्तिष्क में भले ही अण्डमान जेल में बना हो किन्तु गोमांतक एवं कमला काव्य कृतियों की रचना तो पूर्णतः अण्डमान में हुई ।
महान् कर्मयोगी वीर विनायक दामोदर सावरकर का जीवन वृत्त विश्व में बलिदान एवं पराक्रम का साकार रूप है । उसी प्रकार सावरकर साहित्य की एक महान विशेषता यह है कि प्रत्येक अंश में वह परकीय सत्ता के विरुद्ध वैचारिक प्रतिकार के साथ साथ सशस्त्र प्रतिकार के अर्थात् स्वातन्त्र्य लक्ष्मी की पावन – पूजा के लिए सशस्त्र क्रान्ति की भी प्रेरणा देता है । भारत के दक्षिणी पूर्वी तट पर पुर्तगालियों ने गोमांतक ( गोवा ) भूमि पर जघन्य अत्याचार किए । उसका चित्रण उनके एवं उनके विरुद्ध हिन्दुओं के प्रतिकार एवं गौरवपूर्ण संघर्ष की ज्वलन्त गाथा इस ग्रंथ में प्रस्तुत है । जिन दिनों का वृत्तान्त गोमांतक ‘ में उपलब्ध है , उन दिनों छत्रपति शिवाजी महाराज के महान् आदर्शों से प्रेरित होकर वीर मराठे हिन्दू पद – पादशाही की पावन भगवी पताका के नीचे , दक्षिण के मध्य एवं उत्तर तक विदेशी मुस्लिम सत्ताधीशों के विरुद्ध सफल अभियान चला रहे थे । उनकी सफलता से गोवा के हिन्दू – जन भी लाभान्वित और प्रेरित होकर पुर्तगालियों को खदेड़ने लगे थे । जिस भाँति शिवाजी ने धर्मच्युत हिन्दू बन्धुओं को पुनः शुद्धि का अमृत पिलाकर हिन्दुत्व की दीक्षा दी थी . उसी भाँति निर्भय यातनाओं द्वारा गोमांतक में पुर्तगालियों द्वारा ईसाई बनाये गए सहस्रो हिन्दुओं की सामूहिक रूप से पुनः धर्म प्रवेश ( शुद्धिकरण ) हुआ । कथानक की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि तो वास्तविक है । गोमान्तक के इतिहास के पृष्ठ तो पुर्तगालियों के अत्याचारों से परिपूरित हैं । ही , उनमें रक्त के अथाह छींटे छितरे हुए हैं , किन्तु प्रस्तुत ग्रन्थ का कथानक रूढ़ि या पात्र इत्यादि लेखक के अपने विवेक की उपज है । अतः अन्य उपन्यासों की भाँति ये पात्र भी काल्पनिक हैं । कुछ समालोचक उनकी कल्पना में उनकी ही जीवन झाँकी की झलक देखते हैं ।
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