भारतीय साहित्य जगत में ध्रुव तारे की तरह अपना स्थान रखने वाले गुरुदत्त जी का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है । अपने जीवन काल में गुरुदत्त जी ने जितने भी उपन्यास लिखे , वे सभी आज उतने ही लोकप्रिय हैं जितने कि उस समय थे । विक्रमादित्य साहसांक उनके द्वारा लिखा गया ऐतिहासिक उपन्यास है जो उन्होंने अत्यधिक अध्ययन और खोज के बाद लिखा । इस उपन्यास का नायक चन्द्रगुप्त द्वितीय है जिसे गुरुदत्त जी ने विक्रमादित्य साहसांक मानते हुए विक्रम संवत का प्रवर्तक सिद्ध किया है
प्राचीन ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर राजनीति तथा प्रेम का अद्भुत समन्वय प्रस्तुत करता है यह उपन्यास अति रुचिकर तथा विवेचनापूर्ण है । निःसन्देह हिन्दी भाषी पाठकों के लिये यह उपन्यास अत्यन्त ही मनोरंजक सिद्ध होगा । श्री गुरुदत्त की अपार खोज के परिणामस्वरुप प्रणयित उपन्यास जिसमें उन्होंने भारतीय इतिहास के युगपुरुष , विक्रम संवत् के प्रवर्तक , देश , धर्म व भारतीय वाङ्मय के सेवक , भारतवर्ष की सीमाओं के विस्तार व शत्रु विनाशक , महाराज विक्रमादित्य को नायक के रूप में उभारा है । प्रथम परिच्छेद उज्जयिनी के राजपथ से निकलने वाली एक वीथिका के आरम्भ में एक अच्छे – बड़े निवास गृह में शंख , घड़ियाल , छैने , झांझर इत्यादि की ध्वनि हो रही थी । निवास गृह में एक प्रांगण था । गृह – द्वार इसी प्रांगण में खुलता था । प्रांगण के वाम पार्श्व में एक बड़े से आगार में मन्दिर था . जिसमें दुर्गा भवानी की मूर्ति स्थापित थी । गृह के इस मन्दिर में आरती हो रही थी । परिवार के सभी सदस्य मन्दिर में उपस्थित थे । सबसे आगे प्रौढावस्था का एक ब्राह्मण खड़ा था । सिर पर बड़ी सी चोटी ओर गले में मोटे सूत का यज्ञोपवीत था । उनके पार्श्व में उसकी धर्मपत्नी जी आयु में उससे पर्याप्त छोटी प्रतीत होती थी खड़ी थी । इन दोनों के पीछे , इनका परिवार था । एक और पण्डितजी का पुत्र अपनी युवा पत्नी के साथ था और दूसरी और पण्डितजी की कन्या अपने भाई के पुत्र के साथ खड़ी थी । लड़की की आयु पन्द्रह – सोलह वर्ष की थी । आरती से पूर्व पण्डितजी ने पूजा की । अब दुर्गा स्ताव अत्यंत ही मधुर स्वर में पाठ किया जा रहा था
1 . विक्रमादित्य साहसांक तथा शकांतक एक ही व्यक्ति था ।
2. चंद्रगुप्त द्वितीय , साहसोक तथा शकांतक एक ही व्यक्ति था ।
3. साहसांक तथा भट्टारक हरिश्चंद्र समकालीन थे ।
4. चंद्रगुप्त द्वितीय तथा हरिश्चंद्र समकालीन थे ।
5. अत : विक्रमादित्य साहसांक तथा विक्रमादित्य चंद्रगुप्त एक ही व्यक्ति था ।
6. चंद्रगुप्त विद्वान तथा कवि था ।
7. विक्रमादित्य सूक्तिकार और कोषकार तथा साहसांक कोषकार ही था ।
8. अतः विक्रमादित्य चंद्रगुप्त और साहसांक एक थे ।
9. विक्रम सम्वत् प्रवर्तक ही जैन – साहित्य का प्रसिद्ध विक्रम और सम्वत् प्रवर्तक था ।
10. इस विक्रमादित्य चंद्रगुप्त का वररुचि , हरिश्चंद्र , सिद्धसेन दिवाकर , विशाखदत्त एवं कालिदास से सम्बंध था । वसुबंधु और दिमाग भी उसी के काल में हुए थे ।
” इन निष्कर्षों के आधार पर ही यह ‘ विक्रमादित्य साहसांक ‘ उपन्यास लिखा गया है । हमारा पाठकों से आग्रह है कि वे यह हृदयंगम कर लें कि इस उपन्यास का आधार तो ऐतिहासिक है , परंतु यह इतिहास का ग्रंथ नहीं है । इसमें कल्पना का अंश भी है और अच्छी मात्रा में है । देश में प्रचलित धारणाओं का इस उपन्यास में समावेश करने के लिए इस कल्पना का ताना – बाना किया गया है । वे प्रचलित धारणाएँ ये हैं 1. विक्रमादित्य एक ऐतिहासिक व्यक्ति था , जिसका सम्वत् पूर्ण उत्तरी भारत , राजस्थान , उत्तर प्रदेश तथा बिहार इत्यादि प्रदेशों में प्रचलित 2. विक्रमादित्य ने अपने जीवन काल में देश तथा धर्म एवं भारतीय वाङ्मय की अतुल सेवा की । 3. गुप्तवंश के काल में वेद – वेदांग तथा पुराण धर्मशास्त्रों का पुनः प्रचार हुआ था और वर्तमान हिंदू संस्कृति को वेद – शास्त्रों के साथ जोड़ने के लिए भारी प्रयास किया गया था । 4. गुप्त शासकों ने भारतवर्ष की सीमाओं को हिंदुकुश तक पहुँचा दिया था । इसके लिए देश के भीतर के देश द्रोहियों तथा विदेशी आक्रमणकारियों एवं देश में रहने वाले अनाय ने गुप्त वंश वालों की निंदा की है । उनको क्रूर आततायी इत्यादि कहकर संबोधित किया है । 5. शक विदेशीय थे । इनको देश से बाहर निकालने में चंद्रगुप्त द्वितीय अर्थात् विक्रमादित्य ने और स्कंदगुप्त ने भारी प्रयास किया था । अतः इनको देश से बाहर निकाले जाने की प्रसन्नता में शक सम्वत् चला था । इस पर भी ‘ विक्रमादित्य साहसांक ‘ उपन्यास ही है ।
– गुरुदत्त
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